रविवार, दिसंबर 30, 2012

कुछ और नया होना चाहिये-----





इस धरती पर
कुछ नया
कुछ और नया होना चाहिये-----

चाहिये
अल्हड़पन सी दीवानगी
जीवन का
मनोहारी संगीत
अपनेपन का गीत-----

चाहिये
सुगन्धित हवाओं का बहना
फूलों का गहना
ओस की बूंदों को गूंथना
कोहरे को छू कर देखना 
चिड़ियों सा चहचहाना
कुछ कहना
कुछ बतियाना------

इस धरती पर
कितना कुछ है
गाँव,खेत,खलियान
जंगल की मस्ती
नदी की दौड़
आंसुओं की वजह
प्रेम का परिचय
इन सब में कहीं
कुछ और नया होना चाहिये
होना तो कुछ चाहिये-----

चाहिये
किताबों,शब्दों से जुडे लोग
बूढों में बचपना
सुंदर लड़कियां ही नहीं
चाहिये
पोपले मुंह वाली वृद्धाओं  में
खनकदार हंसी------

नहीं चाहिये
परचित पुराने रंग
पुराना कैनवास
कुछ और नया होना चाहिये
होना तो कुछ चाहिये---------

"ज्योति खरे" 

शनिवार, दिसंबर 29, 2012

दामिनी--------

                                   कौन कहता मर गयी
                                   दामिनी
                                   हर धड़कते दिल में जिन्दा
                                   दामिनी
                                   बुझ रही थी आग जो
                                   विद्रोह की
                                   और दहका गयी
                                   दामिनी--------
                                  
                                  "ज्योति खरे" 

शनिवार, दिसंबर 22, 2012

बिटिया---------





स्नेह के आँगन में
सूरज की किरण
रखती है अपना कदम
उस समय तक
झड-पुछ जाता है समूचा घर
फटकार दिये जाते हैं
रात में बिछे चादर
बदल दिये जाते हैं
लिहाफ तकिये के------

समझाती है
साफ़ तकिये में
सर रखकर सोने से 
सपने आते हैं
सकारात्मक---
फेंक देती है
डस्टबिन में रखकर
बीते हुये दिन की
उर्जा नकारात्मक------

आईने के सामने खड़ी होकर
बालों में लगाती हुई रबरबेंड
गुनगुनाती है
जीवन का मनोहारी गीत------

तेज-चौकन्ना दिमाग रखती है
नहीं देती पापा को
चांवल और आलू
जानती है इससे बढ़ती है
शुगर
टोकती है मम्मी को
की पहनों चश्मा
अच्छे से हो तैयार 
बचाती है भैय्या को
पापा की डांट से--------

रिश्तों को सहेजकर रखने का
हुनर है उसके पास
दूर-दूर तक के रिश्तेदारों की
बटोरकर रखे है जन्म तारीख
भूलती नहीं है
शुभकामनायें देना--------

जागता है जब कभी
पल रहा मन के भीतर का संकल्प
कि करना है कन्यादान
टूटने लगता है
रिश्तों की बनावट का
एक-एक तार--------

नाम आंखों में
समा जाती हैं बूंदें
टपकने नहीं देता इन बूंदों को
क्या पता
यह सुख की हैं या दुःख की-------

ऐसे भावुक क्षणों में
समा जाती है मुझमें
उन दिनों की तरह
जब घंटों सीने पर लिटा
सुलता था---------

जब से सयानी हुई है   
गहरी नींद में भी
चौंक जाता हूं
जब आता है ख्याल 
कि कोई देख रहा है उसे
बचाने लगता हूं
बुरी नजर वालों से
कि नजर न लगे
बिटिया को------------

"ज्योति खरे"











   
  

शनिवार, दिसंबर 15, 2012

सृजन के औजार--------

आरी
काटती है लकड़ी
वसूला
देता है आकर
रन्दा
छीलता है
चिकना करता है
छेनी
तराशती है पत्थरों को-----

यह सब औजार
कारीगरों के हाथों में आकर
दुनियां को
एक नए शिल्प में
ढालने की
ताकत रखते हैं------

लेकिन अब
कारीगरों के हाथ
काट दिये गये हैं------

बदल दिये गये हैं
सृजन के औजार
हथियारों में---------

"ज्योति खरे"

(उंगलियां कांपती क्यों हैं-----से )



सोमवार, दिसंबर 10, 2012

सपनों ने

सपनों ने
गली की पुलिया पर बैठकर
यह तय किया
अब नहीं दिखेंगे-------

सपने कोलाहल में
कैसे जीवित रह पायेंगे
यह सोचकर
सपनों ने छोड़ दिया है
भीड़ में रहना-------

सपनों ने कभी नहीं चाहा
कि दंगा हो
पैदा हो नफरत
सपने तो चाहते हैं
रहना अलहदा
हर बुरे ख्याल से--------

सपने
सदभाव की आँखों में
रहेंगे
वहीं तय करेंगे
दिखें या ना दिखें---------

"ज्योति खरे"

रविवार, दिसंबर 02, 2012

यूकेलिप्टस-------------

यूकेलिप्टस-------------
एक दिन तुम और मैं
शाम को टहलते
उंगलियां फसाये
उंगलियों में
निकल गये शहर के बाहर-----

तुमने पूछा
क्या होता है शिलालेख
मैने निकाली तुम्हारे बालों से
हेयरपिन
लिखा यूकेलिप्टस के तने पर
तुम्हारा नाम----

तुमने फिर पूछा
इतिहास क्या होता है
मैने चूम लिया तुम्हारा माथा-----

खो गये हम
अजंता की गुफाओं में
थिरकने लगे
खजुराहो के मंदिर में
लिखते रहे उंगलियों से
शिलालेख
बनाते रहे इतिहास--------

आ गये अपनी जमीन पर
चेतना की सतह पर
अस्तित्व के मौजूदा घर पर-----

घर आकर देखा था दर्पण
उभरी थी मेरे चेहरे पर
लिपिस्टिक से बनी लकीरें
मेरा चेहरा शिलालेख हो गया था
बैल्बट्स की मैरुन बिंदी
चिपक आयी थी
मेरी फटी कालर में
इतिहास का कोई घटना चक्र बनकर-------

अब खोज रहा हूं इतिहास
पढ़ना चाहता हूं शिलालेख----

अकेला खड़ा हूं
जहां बनाया था इतिहास 
लिखा था शिलालेख
इस जमीन पर
खोज रहा हूं ऐतिहासिक क्षण-------

लोग कहते हैं
यूकेलिप्टस पी जाता है
सतह तक का पानी
सुखा देता है जमीन की उर्वरा-------

शायद यही हुआ है
मिट गया शिलालेख
खो गया इतिहास-------

अब फिर लिख सकेंगे इतिहास
अपनी जमीन का---

क्या तुम कभी
देखती हो मुझे
अपने मौजूदा जीवन के आईने में
जब कभी तुम्हारी
बिंदी,लिपिस्टिक
छूट जाती है
इतिहास होते क्षणों में---------

            "ज्योति खरे"