ख़ास-मुलाक़ात
प्रीति अज्ञात
के साथ
जीवन को बहुत संघर्षों के साथ जिया है, कभी मौका नहीं मिला
अपने जीवन के बिताएं दिनों को
साझा करने का,एक दिन प्रीति अज्ञात जी का फोन
आया कि मैं आपसे आपके जीवन के बारे में कुछ जानना चाहती हूँ ,
पहले तो मैंने मना कर दिया पर उनके आग्रह के आगे मैं झुक गया और प्रीति ने मेरे भीतर का सच उगलवा लिया
अब आप भी पढ़ें
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सादर
ख़ास-मुलाक़ात
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आदमी के भीतर पल रहे आम आदमी होने का सुख
ज्योति खरे,
कठिनाइयों से भरे एक संघर्षपूर्ण जीवन पर विजय पाने की जीती-जागती मिसाल !
एक ऐसा बचपन, जिसे समय से पूर्व ही समझदारी की चादर ओढ़नी पड़ी; एक ऐसा युवा
जो वक़्त के सिखाने के पहले ही दुनियादारी सीख चुका था; एक ऐसा पति जिसे
गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने के कई वर्ष पहले से ही जिम्मेदारियाँ निभाना
और घर चलाना बख़ूबी आ गया था ! एक ऐसा कवि जिसने हर दर्द, हर तक़लीफ, हर
समस्या को क़रीब से देखा, समझा और शब्दों में पिरोता रहा। उनके कठिनाई भरे
जीवन और जुझारूपन के बारे में कोई प्रश्न करे तो बड़े ही सहज भाव से उत्तर
मिलता है “...आदमी के भीतर पल रहे आदमी का यही सच है। और आदमी होने का सुख
भी यही है
ज्योति खरे
जी के प्रारंभिक जीवन की जानकारी नेट से जानने के बाद, उस पर कोई बात करने
से बचना चाहती थी मैं, या यूँ कहूँ कि मेरी हिम्मत ही जवाब दे गई थी। सोचती
थी, पुरानी बातें क्यों छेड़ूँ पर उनके सरल, सहज और मिलनसार स्वभाव ने मेरी
हर मुश्किल आसान कर दी। स्वयं को दादा कहलाना पसंद करने वाले ज्योति खरे
जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर एक विस्तृत चर्चा -
प्रीति
'अज्ञात'- मानवीय प्रवृत्ति ही कुछ ऐसी है कि सब कुछ होते हुए भी वह उसमें
खोट निकालकर अपने दुख का बहाना ढूँढ लेता है और फिर खुशी की तलाश में
उम्र-भर भटकता रहता है। जब आपके बारे में जानकारी प्राप्त की तो महसूस
हुआ कि संघर्ष होता क्या है और उस पर कैसे विजय प्राप्त की जाती है। आप, आज
की पीढ़ी के लिए एक प्रेरणा हैं, अगर आपकी अनुमति हो तो पत्रिका परिवार
आपके प्रारंभिक जीवन और उससे जुड़ी कठिनाइयों को हमारे पाठकों के साथ साझा
करना चाहेगा, जिससे उन्हें मुश्किलों से जीतकर आगे बढ़ने का प्रोत्साहन
मिले।
ज्योति खरे-
धन्यवाद ! मेरा सौभाग्य होगा कि मैं अपनी कहानी आपके साथ साझा कर सकूँ.
प्रारंभिक दिनों से ही बताता हूँ... मेरा पूरा बचपन ही संघर्ष पूर्ण रहा
है, जब मैं 1966 में घमापुर माध्यमिक विद्यालय जबलपुर में कक्षा चौथी में
पढता था, उन दिनों पापा की दिमाग की एक नस ने काम करना बंद कर दिया था,
पापा रेलवे में स्टीम लोको में कार्य करते थे,उन्होंने नौकरी में जाना बंद
कर दिया था, मैं घर का सबसे बड़ा था और मुझसे छोटी दो बहने और दो भाई थे। घर
की हालत बहुत खराब हो गयी थी, पापा के एक दोस्त थे यशवंत राव, उनसे मैंने
कहा चाचा मुझे कहीं काम दिलवाओ उन्होंने मुझसे कहा ठेला चलाकर पंखे बेचोगे,
उन दिनों कूलर और बिजली के पंखों का चलन कम था, बिजली भी सभी घरों में
नहीं हुआ करती थी, इलाहाबाद के प्रसिद्ध खजूर के हाथ वाले पंखों की बड़ी धूम
हुआ करती थी, फिर क्या था मैंने हाँ कर दी और हथठेला में रखकर फेरी लगाकर
२५ पैसे ५० पैसे के पंखे बेचने लगा। घर की यह स्थिति हो गयी थी कि अम्मा के
जेवर बिक गए यहां तक कि बर्तन बेचने की नौबत भी आ गई थी। फिर मैं पांचवीं
में पहुंचा प्रत्येक रविवार को खमरिया में बाजार लगता था वहाँ पर फोटो
फ्रेम बेचने जाने लगा। पापा जब थोड़ा ठीक हुए तो उनका ट्रांसफर कटनी हो
गया, हम लोग नयी कटनी आ गये। नयी कटनी, शहर से 6 किलोमीटर दूर है, हालत यह
थी कि जब यहाँ घर में पहली बार रोटी के लिए आटा गूँधा गया था तो उसके लिए
भी बर्तन नहीं था। मैं सातवीं में था, फिर यहां शहर से डबल रोटी, दूध की
बोतल, अखबार लाकर बेचना शुरू किया, धीरे धीरे सब ठीक होने लगा।
लेकिन मैं
काम धंधा करता ही रहा और भाई बहनों को पढ़ाता रहा। चाय की दुकान खोली, चाट
का ठेला लगाया,कपडे की दुकान में नौकरी की और इसी दौरान 1975 में प्राइवेट
हायर सेकेंडरी की परीक्षा पास की। पढाई बंद कर दी, पैसे कमाता रहा, घर
चलाता रहा पापा की छोटी सी नौकरी थी वेतन कम और घर के प्रति लापरवाह भी थे।
फिर 1983 में बी.ए. और 1985 में हिंदी साहित्य में एम.ए. किया। इन सबसे
समय निकाल कर मैं टेबल टेनिस भी खेलता था, अच्छा खिलाड़ी भी था, क्रिकेट भी
अच्छा खेलता था,यही रेलवे की टीम से खेला करता था। साथ ही रेलवे में
टेम्परेरी नौकरी करता था। इस बीच 12 मार्च 1982 को मैं डीज़ल शेड नयी कटनी
में खलासी के पद पर परमानेंट हो गया।
प्रीति
'अज्ञात'- अपने जीवन का ये महत्वपूर्ण हिस्सा साझा करने के लिए आपको पुन:
नमन दादा! सुना है, आपके विवाह की कहानी भी बड़ी रोचक रही है!
ज्योति खरे-
जी, इसमें मेरी पत्नी का बहुत योगदान रहा है क्योंकि वे मुझे बहुत पसंद
करती थी और अभी भी करती हैं। पर यह बात मुझे शादी के बाद पता चली कि वे ही
चाहती थी मुझसे विवाह करना। 13 फ़रवरी 1986 को मेरा सुनीता से विवाह हुआ।
वे यहीं नयी कटनी के रेल अधिकारी की बिटिया और मेरी छोटी बहन की सहेली भी
थीं। उन दिनों मैं रेलवे में चतुर्थ श्रेणी का कर्मचारी था, लोगों ने मेरे
ससुर से बहुत कहा कि आप अधिकारी और दामाद गरीब और छोटी सी नौकरी! मेरे ससुर
ने कहा मैं एक कर्मशील से अपनी बिटिया की शादी कर रहा हूँ।
प्रीति 'अज्ञात- आपका वैवाहिक जीवन हमेशा यूँ ही खुशहाल रहे ! साहित्य के लिए आप अपनी माँ को प्रेरणा-स्त्रोत मानते रहे हैं न !
ज्योति खरे-
बिलकुल सही, मेरी माँ श्रीमती प्रमिला देवी खरे मेरी पक्की सहेली और
प्रेरणा-स्त्रोत रही हैं। अम्मा साहित्य रत्न है, संघर्षों से लड़ना जानती
हैं। गरीबी में भी उन्होंने मुझे सही राह दिखाई,लड़ना सिखाया बेहतर संस्कार
दिए। वे बहुत समृद्ध खानदान की हैं पर विवाह के बाद आज तक मायके नहीं गयी
क्योंकि जब हम गरीबी से जूझ रहे थे और छोटे थे तो हमारे मामा जी ने अम्मा
से कहा कि तुम मायके आ जाओ। अम्मा ने कहा "नहीं, मैं यहीं रहूंगी जो भोगना
है भोगूँगी" तो मामा जी ने कहा ठीक है अब तुम मायके तब आना जब हमारी बराबरी
की हो जाओ और अम्मा आज तक नहीं गयी। अब जब सब ठीक हो गया फिर भी नहीं गयी।
साहित्य उन्हीं की देन है।
प्रीति
'अज्ञात'- लेखन की शुरुआत कैसे हुई? सृजनात्मक कार्य के लिए एकांत और समय
दोनों ही आवश्यक हैं, आप इतनी कठिनाइयों के बीच यह सब कैसे कर सके?
ज्योति खरे-
लिखने-पढने की रूचि तो बचपन से ही थी, नयी कटनी जहां हम रहते हैं, यहाँ रेल
मनोरंजन गृह में बढ़िया पुस्तकालय है, जब समय मिलता था वहीं जाकर पढता था।
कुछ-कुछ लिखता भी था पर बहुत बेकार-सा! बात 1975 की है मैं रेलवे में
अस्थायी तौर पर मजदूरी करता था। उन्ही दिनों एक लघु कथा लिखी थी और उसे
सारिका में भेज दिया था। उस दौर में कमलेश्वर जी (जो सारिका के सम्पादक थे)
ने नयी कहानी और नयी कविता का आन्दोलन चला रखा था। वे युवा लेखकों को
महत्व देते थे। भाग्यवश मेरी लघुकथा सारिका में प्रकाशित हो गयी। मित्रों
ने तो बहुत मजाक उड़ाया पर अम्मा और भाई बहन, पापा बहुत खुश हुए थे। लिखने
का सिलसिला चल पड़ा फिर कवितायें लिखी, धर्मयुग,साप्ताहिक हिन्दुस्तान,
कादम्बनी जैसी कई पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ। साहित्य और संगीत जीवन का
शाश्वत सच है जो जीवन को सृजनशील बनाता है और सृजन को जिन्दा रखने के लिए
समय कोई मायने नहीं रखता। पढना और लिखना संघर्षों के दिनों का सबसे अच्छा
साथी होता है,जो लम्बी रातों में आपके साथ जागता है, यही वह वक़्त है जब
बेहतर लिखा जाता है, बेह्तर सोचा जाता है।
प्रीति
'अज्ञात'- जैसा कि हमें ज्ञात ही है कि आपकी रचनाएँ मूलत: जीवन से जुडी
होती हैं कविता के अलावा आप कहानियाँ, व्यंग्य और आलेख भी लिखते रहे हैं.
पर इस सबका विरोध करने वाले भी ख़ूब रहे होंगे? किसी की दी हुई कोई सलाह
याद है आपको?
ज्योति खरे-
जीवन के हर क्षेत्र में अकेला ही बढ़ा हूँ ,सलाह कौन देता, अपमान करने वाले
बहुत रहे हैं। लिखने के दौरान बहुत सारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है।
लोग कहते थे "गरीबी में जीवन जी रहे हो और लिख रहे हो कविता ? ज्योति बाबू
पेट भरो पहले फिर लिखना और कविता क्यों लिखते हो, पहले कुछ पढ़ लो नौकरी कर
लो तो कुछ बन जाओगे" इन्हीं दिनों एक कहानी लिखी थी एक रिक्शे वाले के ऊपर
"लालटेन बुझ गयी" जो आकाशवाणी से प्रसारित हुई थी, फिर "सहमे हुए दर्द" एक
नर्स और एक शिक्षक के प्रेम पर आधारित थी। फिर "पीड़ा का हिमालय लुढ़क गया"
जो अनजान भाई बहन पर लिखी थी, प्रसारित हुई थी।
पर उन दिनों
एक लड़की शशि मुझे बहुत चाहती थी। बहुत सुंदर थी, अच्छे परिवार की थी,मुझे
आर्थिक मदद भी करती थी। वह हमेशा कहती थी, लिखा करो। मैं भी उसके लिए
प्रेम कवितायें लिखा करता था। हम दोनों अक्सर पत्रों में ही बातें किया
करते थे। इन पत्रों में प्रेम नहीं जीवन की वार्ता होती थी, कुछ दुःख, कुछ
सुख लिखे होते थे। वह दौर ही बहुत सुंदर,शालीन और संस्कारी रहा है, प्रेम
का अर्थ केवल प्रेम ही हुआ करता था, ऊँगली भी नहीं पकड़ी जाती थी, दूर से ही
हलकी फुलकी बात करो, प्रेम पत्र का आदान प्रदान करो और निकल लो अपनी-अपनी
गली।1980 में उसकी शादी हो गयी और मैं पुनः अपनी औकात में आ गया, सारे
प्रेम पत्र उसके दिए हुए रुमाल में बांधकर रख दिए गए। दो साल भटकता रहा, इस
बीच बी.ए. का प्राइवेट फार्म भर दिया, रेलवे में भी स्पोर्ट कोटे की
चतुर्थ श्रेणी की पोस्ट निकली और मैं 1982 में रेलवे में भर्ती हो गया।
प्रीति 'अज्ञात'- आपके साहित्यिक जीवन की सही मायनों में शुरुआत कब हुई?
ज्योति खरे-
1984 में म.प्र साहित्य परिषद ने युवा रचनाकारों को लेकर पचमढ़ी में रचना
शिविर का आयोजन किया। मुझे भी आमंत्रण मिला, मैं बेहद खुश हुआ। वहाँ पर
ज्ञानरंजन, राजेश जोशी, कमलापांडे, भगवत रावत, उदय प्रकाश,धनंजय वर्मा
स्थापित और वरिष्ठ साहित्यकारों के बीच दस दिन गुजारे, रचनाओं पर व्याखान
सुने और रचना का विधान बुनना सीखा। इसके बाद रचना लिखने की दशा और दिशा ही
बदल गयी नयी सोच की कवितायें लिखने लगा,प्रेम की कवितायें या गीत हाशिये पर
आ गए,और कवितायें समकालीन साहित्य की पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी।
प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ा,पाठक मंच का संयोजक बना।
प्रीति
'अज्ञात'- जो लोग काफ़ी पहले से ही लिखना प्रारंभ कर देते हैं, उनकी लेखनी
किसी-न-किसी कारण कुछ वर्षों के लिए मौन हो जाती है. क्या आपके साथ भी ऐसा
हुआ?
ज्योति खरे-
हाँ, जब गुटबाजी और केवल मंचो पर कविता पढ़ने की लोगों की विचारधारा से मन
उकता गया तो बीच के कई सालों तक साहित्य से दूर रहा पर लिखता पढता रहा। फेस
बुक से जुड़ा बहुत से अच्छे मित्र बने, भाई बने, बहनें बनी और साहित्य सृजन
का नये सिरे से संचार हुआ।
प्रीति 'अज्ञात'- नये-पुराने दौर का कोई रचनाकार, जिसने आपको सर्वाधिक प्रभावित किया!
ज्योति खरे-
यह बता पाना मुश्किल है कि कौन पसंद है और कौन नहीं! जो लिखा जा रहा है
बहुत बढ़िया है, बस आत्मसात करने का नजरिया है। सब बेहतर लिखते हैं साहित्य
और संगीत ऐसी विधा है जिसमें "क्लासिफिकेशन" नहीं होता, सब "क्लासिक" होता
है। पुराने दौर से हम सीखते हैं और नये दौर से यह जानते हैं कि नया किस तरह
हो रहा है।
प्रीति 'अज्ञात'- काव्य-सृजन के अलावा आपको और क्या प्रिय है? अपनी पसंदीदा रचना भी कहें !
ज्योति खरे-
फुरसत के समय गजल और पुराने प्रेमगीत सुनता हूँ या पत्नी सुनीता के साथ
पैदल निकल जाता हूँ। जीवन जीने की बातें करते वह मेरी कमियों को समझाती
चलती है और मैं पान दबाये सुनता चलता हूँ।
'जिनि' मेरी सर्वप्रिय रचना रही है-
स्नेह के आँगन में
सूरज की किरण
रखती है जब अपना पहला कदम
उस समय तक
झड-पुछ जाता है समूचा घर
फटकार दिये जाते हैं
रात में बिछे चादर
बदल दिये जाते हैं
लिहाफ तकिये के
समझाती है
साफ़ तकिये में
सर रखकर सोने से
सुखद सपने आते हैं
फेंक देती है
डस्टबिन में रखकर
बीते हुये दिन की
उर्जा नकारात्मक--
आईने के सामने खड़ी होकर
बालों में लगाती हुई रबरबेंड
गुनगुनाती है
जीवन का मनोहारी गीत------
तेज-चौकन्ना दिमाग रखती है
नहीं देती पापा को
चांवल और आलू
जानती है इससे बढ़ती है
शुगर
टोकती है मम्मी को
कि साफ़ करके पहनों चश्मा
करीने से साड़ी पहनों
अच्छे से हो तैयार
बचाती है भैय्या को
पापा की डांट से--------
रिश्तों को सहेजकर रखने का
हुनर है उसके पास
दूर-दूर तक के रिश्तेदारों की
बटोरकर रखे है जन्म तारीख
भूलती नहीं है
शुभकामनायें देना--------
जागता है जब कभी
पल रहा मन के भीतर का संकल्प
कि करना है कन्यादान
टूटने लगता है
रिश्तों की बनावट का
एक-एक तार--------
सूखी आंखों में
समा जाती हैं बूंदें
इन बूंदों को
नहीं देता टपकने
क्या पता
यह सुख की हैं या दुःख की---
ऐसे भावुक क्षणों में
समा जाती है मुझमें
उन दिनों की तरह
जब घंटों सीने पर लिटा
सुलाता था---
जब से सयानी हुई है
गहरी नींद में भी
चौंक जाता हूं
जब आता है ख्याल
कि कोई देख रहा है उसे
बचाने लगता हूं
बुरी नजर वालों से
कि नजर न लगे
बिटिया को----
प्रीति
'अज्ञात'- आज का युवा क्या अपने रास्ते से भटकता प्रतीत हो रहा है? इसके
लिए दोषी कौन है? युवाओं में साहित्य के प्रति रुझान कितना आवश्यक है?
ज्योति खरे-
युवा वर्ग आज के संदर्भ में सबसे ज्यादा चर्चित वर्ग है। यह वर्ग बुजुर्ग
और किशोरों के बीच का वर्ग है. अगर पढ़ रहा है तो कालेज का छात्र, अगर नहीं
पढ़ रहा है तो बेरोजगार युवा वर्ग की आयु का भी आंकलन लगाना मुश्किल है।
युवा वर्ग की परिभाषा बताना भी मुश्किल है,युवा वर्ग वही है जो सम्पूर्ण
आदमी नहीं है। आज का युवा वर्ग अपने आप में प्रश्न है,इस प्रश्न को सुलझाने
का प्रयास करना भी असंभव है।
देश की गिरती
साख, राजनीति की निम्नतम स्थिति,सेल्यूलाईड का क्रेज,फैशन का बढ़ता
चलन,युवा वर्ग को सृजनशील बनाने की अपेक्षा उसकी मनःस्थिति को अधकचरा
संस्कृति और आधुनिकवाद की तरफ ले जाने में सक्रिय है। युवा वर्ग
पिस्टल,चाकू,तलवार,तेज़ाब से डरता नहीं है बल्कि चौबीसों पहर इनसे खेलता
रहता है। यह फिल्मों से निकली संस्कृति को "फालो" करता है,फैशन के रंग में
रंगना चाहता है और "बाईक" में बैठकर अपनी छोटी सी जिंदगी नापना चाहता है।
आज का युवा विश्वविद्यालय कैम्पस में नारे लगाता है,हड़तालें करता है,युवा
नेता बनना चाहता है। संजय दत्त स्टाईल बाल रखता है,फ़िल्मी कलाकार इसके
आदर्श हैं,लड़कियों को छेड़ना इनके शौक में शुमार है,बलात्कार करना इनका
"पैशन" है ,यह समाज के लिए समस्या बन गया है,अपने नैतिक स्तर से गिर ही
नहीं रहा,सामाजिक स्तर से भी गिर गया है। यह शिक्षा पद्धति के दोषपूर्ण
होने का परिणाम है.यह शिक्षा पद्धति ना तो पूरी तरह भारतीय और ना पूरी तरह
पाश्चात्य. ठीक इसके विपरीत भारतीय सभ्यता और संस्कृति अपना बुनियादी
मापदंड खोती जा रही है. समाज एकलवादी परंपरा में विश्वास रखने लगा है,लोग
अपनों को ही खुशबूदार "स्प्रे" छिड़कते हैं। संस्कृति पलायनवादी पगडंडी पर
चल पड़ी है। विश्वविद्यालय उच्चादर्शों और अत्याधुनिक प्रयोगात्मक विधियों
से समाहित शिक्षा का प्रसार चला रहा है.फिर भी तीस प्रतिशत ही विद्यार्थी
सही मायने में शिक्षा ग्रहण कर पाता है। बचे हुए सत्तर प्रतिशत का युवाओं
का क्या होता है "यही वह बात है जहां आकर पूरी सामाजिक राजनैतिक और नैतिक
अव्यवस्था मौन हो जाती है" यह अव्यवस्था ही वह मीठा जहर है जो युवाओं को
मार रही है। प्रकृति प्रतिकूलता,जमाने का दोष, कलयुग का दौर, भाग्य का चक्र
आदि कारण बता कर मन को समझाया ही जा सकता है. पर यह समाधान नहीं है युवा
समस्या का। राजनीति,धनशक्ति युवाओं के मानस पटल पर भीतर तक घर कर गयी है जो
भटकाव का कारण है। राजनीति के ग्लेमर में रहकर युवा अपने आप को "कलफ"किए
हुए कुर्ते के समान दिखना पसंद करता है। पूंजीवादी मानसिकता को ओढ़ना चाहता
है,पर जब "रहीस' और "नेता" बनने कि कोशिश चरमरा जाती है,तो वह अपराधिक
प्रव्रत्ति का होने लगता है। अपने मानसिक विकास को सृजनात्मक दृष्टिकोण से
नहीं देखता बल्कि वह अपने स्तर से गिरा पाता है। जनमानस भी इससे अछूता नहीं
है,जनमानस भी इसका दोषी है।
जिस स्थिति
के लिए समाज युवा वर्ग को दोषी ठहरता है, वही समाज अच्छी से अच्छी
प्रतिभायें भी उत्पन्न करता है। आज का समाज आधुनिकवाद का शिकार हो गया है।
ऐसे में वह एक साफसुथरी विचारधारा को क्या जन्म देगा, जिस समाज ने या इससे
जुड़े थोड़े से ही लोगों ने किसी वैचारिक विचारधारा का अध्ययन,मनन किया है तो
निःसंदेह ऐसे समाज से प्रतिभा संपन्न युवा सामने आए हैं, जिंन्होंने
समाज,देश और शहर का नाम रौशन किया है। साफ सुथरे व्यक्तित्व का जन्म
पैदाइशी नहीं होता,इसे बनाया जाता है,इसके बनने,संवरने की प्रक्रिया बड़ी
जटिल है और जटिल है हमारा सृजनात्मक सोच से जुड़ना। युवा अपने आप में पूर्ण
समर्थ है.इनमे अनंत सम्भावनायें हैं। इनका प्रतिभा संपन्न होना स्वयं और
समाज पर निर्भर है.परिस्थितियों को दोषी ठहराना तर्कसंगत नहीं है,वास्तविक
कारण ढूँढना, तथ्य की जड़ तक पहुंचना ही निष्कर्ष है। समकालीन दौर की सबसे
चर्चित समस्या है युवाओं की स्थितियों को बदलना। इसकी आवश्यकता अब ज्यादा
महसूस होने लगी है। अब युवाओं के भटकाव के मूल कारणों की तह तक पहुंचना
पड़ेगा अन्यथा सूखते मुरझाये पेड़ को हार बनाने के लिए पत्ते सींचने और जड़ की
उपेक्षा करने जैसी गलती होती रहेगी।
साहित्य एक
ऐसी परंपरा है जो अपने आप में एक विशेष स्थान रखती है,युवाओं का साहित्य से
जुड़ना नितांत आवश्यक है.इससे स्वस्थ मानसिकता का जन्म होता है। नये-नये
पहलुओं का अध्ययन होता है, बेबाकअपनी बात उजागर करने की क्षमता पैदा होती
है. युवाओं को इस पारदर्शी विचारधारा से जोड़ने का काम पुरानी पीढ़ी ही कर
सकती है. सामाजिक संस्थायें,संगीत विद्यालय, नाट्यसंघ, लेखक संघ इस दिशा
में भी बहुत अच्छे प्रयास कर सकते हैं। नयी पीढ़ी को अब नये सिरे से, नये
सृजनशील वातावरण में लाना ही पुरानी पीढ़ी का दायित्व होना चाहिए, नहीं तो
युवा वर्ग अपनी मौत से पहले ही मर जायेगा।
प्रीति
'अज्ञात'- देश में हिन्दी साहित्य की दिशा और दशा दोनों ही बदल रहीं हैं.
इस बदलाव से आप कितने संतुष्ट हैं? आजकल एक अच्छी पुस्तक का अच्छा होना ही
काफी नहीं होता, 'मार्केटिंग' अब एक अहं हिस्सा बन चुका है ! पहले लेखक का
कार्य लेखन-मात्र ही था पर अब उसे अपने 'प्रोडक्ट' को जनता तक पहुंचाने की
जिम्मेदारी भी ज्यादातर स्वयं ही उठानी पड़ती है ! क्या यह एक अतिरिक्त भार
नहीं?
ज्योति खरे-
हिंदी साहित्य के हालात ठीक हैं, अच्छा लिखा जा रहा है पर एक बात है कि
पाठकों की रूचि उतनी नहीं है जैसे पहले हुआ करती थी। युवा वर्ग अंग्रेजी
साहित्य की तरफ अपना ध्यान ज़्यादा रखता है। यही कारण है कि हिंदी पाठकों
की संख्या में गिरावट आई है। हिंदी साहित्य में बेहतरीन कवितायें और
कहानियाँ लिखी जा रहीं हैं, किताबे भी निकल रही हैं पर हिंदी किताबों के
प्रकाशक किताबों की "मार्केटिंग" करने में अपनी रूचि नहीं दिखा पा रहें
हैं। वहीँ अग्रेजी किताबों के प्रकाशक बेहतर "मार्केटिंग" करते हैं. आज के
दौर में साहित्य "प्रोडक्ट" हो गया है और प्रोडक्ट को बेचने के लिए बेहतर
विज्ञापन "पैकेजिंग" और "मार्केटिंग" की आवश्कता है। इसका असर हिंदी
किताबों की बिक्री और पाठक पर तो पड़ रहा है,अगर लेखन की बात करें तो इसमें
भी बहुत प्रयोग होने लगे हैं। चाहे कविता हो या कहानी,रचनाकार प्रयोग और
पाठक को आकर्षित करने के चक्र में अपनी मूल अभिव्यक्ति को व्यक्त नहीं कर
पा रहा है। यही कारण है कि हिंदी साहित्य की दिशा और दशा दोनों बदल रही है
और इस बदलाव में हिंदी साहित्य को जूझना तो पड़ेगा।
प्रीति
'अज्ञात'- आधुनिक हिंदी कविता या अतुकांत कविता को कुछ लोग, 'कविता' मानना
ही खारिज़ कर देते हैं, इस बारे में आपकी क्या प्रतिक्रिया है? आपके लिहाज
से एक अच्छी कविता की क्या विशेषता होनी चाहिए?
ज्योति खरे-
कविता तो कविता होती है पर जब कविता किसी वाद या "फार्मेट" या खेमे में
बटने लगती है तो वह कई भागों में विभक्त हो जाती है। कविता, आधुनिक कविता,
समकालीन कविता, अतुकांत कविता, गीत, नवगीत, गीत लिखने वाले आधुनिक कविता को
कविता नहीं मानते और आधुनिक कविता लिखने वाले गीत नवगीत को नहीं मानते। दो
विचारधाराओं की लड़ाई में कविता पिस रही है और नया रचनाकार समझ नहीं पाता
कि वह क्या लिखे? आज आधुनिक कविता सबसे ज्यादा लिखी जा रही है और इसके अपने
पाठक भी हैं। जो खारिज कर रहें हैं, करते रहे कविता तो नदी की तरह बहती
रहेगी।
अच्छी कविता वो जो मन को छू ले और मन को मथ दे,सहज सरल हो।
प्रीति
'अज्ञात'- आप कई वर्षों से ब्लॉगिंग की दुनिया में हैं ! तब और अब में आप
क्या अंतर देखते हैं ? ईमानदार पाठकों तक पहुँचने का क्या यह सही मार्ग है
?
ज्योति खरे-
ब्लॉग पहले की अपेक्षा अब बड़े कैनवास पर फलफूल रहा है। अब तो ब्लॉग बहुत
सुंदर और आधुनिक टच के हैं। गूगल प्लस पर सीधा साझा हो जाता है जिससे पाठक
को ब्लॉग में पहुचने में आसानी होने लगी है। ब्लॉग को पढने-लिखने वाले रचना
और सृजन के प्रति बेहद ईमानदार होते हैं यही कारण है कि ब्लॉग का अपना
विशेष महत्व है।
प्रीति
'अज्ञात'- सोशल मीडिया, यू-ट्यूब, ऑडियो और संचार के अन्य माध्यमों के
जरिये लोगों तक अपनी बात पहुँचाना, क्या पुस्तक के मुकाबले ज्यादा आसान और
सहज है ?
ज्योति खरे-
संचार के साधन बढ़े हैं सोशल मीडिया नये-नये प्रयोग कर रहा है। किताबों के
मुकाबले यह तेजी से लोगों तक पहुँच रहा है तो इससे जुड़ने में क्या हर्ज है!
किताब का अपना एक महत्व है पर नये समय के साथ चलना तो पड़ेगा नहीं तो हम
पीछे रह जायेंगे।
प्रीति 'अज्ञात'- हमारी पत्रिका 'हस्ताक्षर' के लिए कुछ कहना चाहेंगे?
ज्योति खरे-
"हस्ताक्षर" का मतलब ही शिक्षा सृजन और संवेदना है। अभिव्यक्ति को जागरूक
पाठकों और सृजनधर्मी तक पहुंचाने की यह सार्थक पहल है। वर्तमान समय में
पुरानी और नयी पीढ़ी के रचनाकारों को जोड़ने की कड़ी में, आपका यह "हस्ताक्षर"
अभियान सृजन के नये इतिहास को रचेगा, आपको साधुवाद।
प्रीति 'अज्ञात'- बहुत-बहुत आभार!
ज्योति खरे- आपका भी धन्यवाद!