गुरुवार, फ़रवरी 26, 2015

आज भी रिस रहा है -----

 जब कभी
तराशा होगा
पहाड़ को
दर्दनाक चीख
आसमान तक तो
पहुंची होगी---
आसमान तो आसमान है
वह तो केवल
अपनी सुनाता है
दूसरों की कहां सुनता है--- 
कांपती सिसकती
पहाड़ की सासें
ना जाने कितने बरस
अपने बचे रहने के लिए
गिड़गिड़ाती रहीं---  
कारीगर  
पहाड़ की कराह
को अनसुना कर
उसे नया शिल्प देने
इतिहास रचने
करते रहे
प्रहार पर प्रहार--- अब जब कभी
कोई इनके करीब आता है
छू कर महसूसता है
इनका दर्द
पारा बन चुकी
पहाड़ की आंखों की बूंदें
टपक कर छन-छना जाती हैं---
बिखेर देती हैं
अंधेरी गुफाओं में उजाला
कि देखो
आज भी रिस रहा है
इतिहास की स्मृतियों से
कराहता खून-----
"ज्योति खरे"

 एलोरा की गुफाएं --- फोटो - ज्योति खरे











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