मंगलवार, जनवरी 16, 2018

गंगा की छाती पर

गंगा की छाती पर
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गंगा की छाती पर
जब भरने लगता है महाकुंभ
महाकुंभ में बस जाती हैं
कई कई बस्तियां
बस्तियों में सम्मलित हो जाती हैं हस्तियां

हस्तियां उजाड़ते आती हैं
कई कई अधबनी बस्तियां
बसने को आतुर बस्तियां

अरकाटीपन,बनावटीपन
चिन्तक की चिंता
तरह तरह के गुरु मंत्र
टांगकर चली जाती हैं हस्त्तियाँ
और टनांगकर चली जाती हैं
छलकपट की दुकानों पर
आध्यात्म की तख्तियां

हिमालय की कंदराओं से निकलकर
आ गये हैं नागा बाबा
देह पर जमी हुई
दीमक छुड़ाने
चमकने लगे हैं
जंग लगे हथियार अखाड़ों में

जारी है
पवित्र होने का संघर्ष

गंगा
बहा रही है अपने भीतर
पूजा के सूखे फूल
जले हुये मनुष्य की
अधजली अस्थियां
कचड़ा,गंदगी
थक गयी है
पापियों के पाप धोते-धोते

कर्ज की गठरी में बंधा
खिचड़ी,तिल,चेवडा
बह रहा है गंगा में
चुपड़ा जा रहा है
उन्नत ललाट पर
नकली चंदन
संतों की भीड़ में लुट रही है
आम आदमी की अस्मिता

गंगा
पापियों के पाप नहीं
पापियों को बहा ले जाओ
एकाध बार अपने में ही डूबकर
स्वयं पवित्र हो जाओ---

"ज्योति खरे"